सोमवार, 8 अक्तूबर 2012


बलबीर सिंह राठी जी की एक गजल 
जिन्दगी आखिर हमें किन रास्तों पर ले चली ,
लोग अपनों ही से अब होने  लागे हैं अजनबी| 
वो बनाएगा जहाँ को और बेहतर किस तरह 
आदमीयत ही का दुश्मन हो गया है आदमी |
लोग बिकने के लिए खुद ही खिलोने बां गये 
काश!वो सोचें की उनकी ऐसी हालत क्यों हुयी |
प्यार के लफ्जों से हो महरूम जब हर गुफ्तगू 
फिर निभेगी किस तरह  एक दूसरे से दोस्ती |
मैकदे में ही पिलाई है किसी ने दोस्तों 
मैकशों ने वर्ना ये नफरत कहाँ से सीख ली |
रोज घटती जा रही है इस की अजमत इन दिनों 
आओ देखें कितना बाकी बच गया है आदमी |
जब किसी में कोई हमदर्दी का जज्बा ही नहीं 
बात कोई क्यूं करे फिर दूसरों के दर्द की |
अब खुशी की मेरे दिल में कैसे गुन्जाईस रहे 
जब जहाँ भर के ग़मों की इसमें दुनिया बस चुकी |
कौन इस अंदाज में कहता है " राठी" के सिवा 
लोग फिर क्यों पूछते है ये गजल किसने  कही |

रविवार, 30 सितंबर 2012

बलबीर सिंह राठी जी की एक गजल 
दुःख आया है बनकर अपना ,
देखे कोई मुकद्दर अपना |
सब आबाद नज़ारे उनके ,
और हर वीरान मंजर अपना |
औरों का दुःख धीरे धीरे ,
दिल में उतरा बनकर अपना |
नजरें हैं ख्वाबों से खाली ,
जेहन भी बिल्कुल बंजर अपना |
चेहरा भूख की एक अलामत ,

दिल है बस इक पत्थर अपना |
सुख की इक छोटी सी गागर ,
दुःख का पूरा सागर अपना |
दिल में रस का इक दरिया है ,
फिर जीवन बंजर अपना |
अब नगमों का वक्त नहीं है ,
रख दो साज उठा कर अपना |
खुद को क्यूं हल्का करते हो .,
किस्सा रोज सुनाकर अपना |
"राठी "

BALBIR SINGH RATHEE JI KEE EK GAJAL

बलबीर राठी जी की एक गजल 
कैसी लाचारी का आलम है यहाँ चारों तरफ 
फैलता जता है जहरीला धुआं चारों तरफ 
जिन पहाड़ों को बना आये थे हम आतिश फशां
अब उन्हीं से जलजले होंगे रवां चारों तरफ 
ऐसे मंजर में हमें जिद्द है किसी गुलजार की 
एक सहरा और खाली आस्मां चारों तरफ 
हो सका तो मैं बहारें लेके जाऊँगा वहां 
सूखे पेड़ों की कतारें हैं जहां चारों तरफ 
सिर्फ मैं ही बां गया हूँ अब निशाना जब्र का 

मेरी जानिब तन गयी है हर कमां चारों तरफ
मंजिलों को ढूँढने फिर खुद निकल आएंगे लोग
फैलने तो दो हमारी दास्ताँ चारों तरफ
"बलबीर सिंह राठी"



शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

कोई आयेगा उसको यूं तो सब हंस कर मिलेंगे

बलबीर राठी जी की एक गजल ------------
कोई आयेगा उसको यूं तो सब हंस कर मिलेंगे 
मेरी बस्ती में लेकिन सारे सौदागर मिलेंगे 
न जाओ तुम वहां आँखों में उजले ख्वाब लेकर 
जो ख्वाबों को निगल जाते हैं वो अजगर मिलेंगे 
यही खुशफहमियां मुझ को यहाँ तक खींच लाई 
तुम्हारे शहर में अब तक वही मंजर मिलेंगे 
उदास आंगन में जिनके रात आकर बैठ जाये 
अंधेरों के घने साये उन्हें दिन भर मिलेंगे 
न मंजिल की खबर जिनको न राहों का
 पता है
जिधर भी जाओगे तुम को वही रहबर मिलेंगे
बराबर चलते चलते लोग मिल जाते हैं अक्सर
मग़र जो फासिला रखेंगे वो क्यूकर मिलेंगे
अगर वो साथ हों तो खुद संवर जाती हैं राहें
सफ़र में तुम को ऐसे लोग भी अक्सर मिलेंगे
जो सच को झूठ कर दें झूठ को सच बना दें
मिरी बस्ती में तुमको ऐसे जादूगर मिलेंगे
हमारे शहर में सच बोलना मुहतात होकर
यहाँ तो हर तरफ बस झूठ के लश्कर मिलेंगे
जरा से फ़ायदे के वास्ते जो जहर दे दे
मिरी बस्ती में ऐसे भी चारागर मिलेंगे
चले आना किसी दिन उसको अपना घर समझ कर
तुम्हारे सब पुराने ख्वाब मेरे घर मिलेंगे
ये मुमकिन है कि "राठी" जी किसी दिन मिल भी जाएँ
मग़र हम सोचते हैं उनसे क्या कहकर मिलेंगे

हम को दी हैं उदासियाँ किसने

बलबीर राठी जी की एक गजल
हम को दी हैं उदासियाँ किसने 
ऐसी साजिश,रची कहाँ किसने 
ला के रख दी ये दूरियां किसने 
मेरा लेना है इम्तिहान किसने 
जो बगावत की बात करते थे 
कर दिया उनको बेजबां किसने 
किसने तौबा उड़न से कर ली 
फिर बनाया है आशियाँ किसने 
सानिहा देखकर तो सब चुप थे 
फिर ये किस्सा किया बयां किसने
क्या बताएं ये फांसला यारो
रख दिया अपने दरमियाँ किसने
इन फजाओं में इतना जहरीला
भर दिया इस कदर धुआं किसने
जब तलब थी मसर्रतोंकी मुझे
दर पे रख दी उदासीयाँ किसने
जो अभी तक कहीं पढी न सुनी
वो सुनायी है दास्ताँ किसने
अपनी खातिर बाना दिया 'राठी"
इतना दोजख नुमा जहाँ किसने